जगजीत सिंह के बाद इतिहास के पन्नो में कही खो गयी है गजल की दुनिया -

कुछ अपवादों को अगर हम छोड़ दें तो जगजीत सिंह के जाने के नौ साल बाद ग़ज़ल अब कहीं नजर नहीं आती. युवाओं में भी रुझान नही दिखता.

जगजीत सिंह के बाद इतिहास के पन्नो में कही खो गयी है गजल की दुनिया -

पढ़ने में यह हमें जरूर खराब लग रहा है , लेकिन आज के इस आधुनिकता की लहर में  गजल गायकी अब लुप्त हो चुकी है. गजल सम्राट जगजीत सिंह के चले जाने के बाद से ऐसा होना ही था. इसका अहसास मुझे पहली बार तब हुआ जब गुलजार की आवाज में जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि देता हुआ ‘एक आवाज की बौछार था वो’ सुना. कितना भावुकता वाला पल था वो  – जिस गजल गायक की आवाज ने शब्दों को जान डाल दी, जिसने हर वो बात गाते हुए अपने अद्भुत अंदाज मे  कही जिसे कह पाना शायद दुनिया के लिये संभव ना हो  – उसके गुजर जाने पर गजल गायकी की दुनिया में विराम लगना ही था.

यकीन मानिये  उस भावुकता को गुजरे कई बरस हो  चूंके है, और जगजीत सिंह के निधन के 9 साल बाद गजल गायकी का परिदृश्य बड़ा भयावह हो चुका है. चंद अपवादों को छोड़कर अगर हम देखे तो गजल अब कहीं नजर नहीं आता. न कोई गायक उन्हें गा रहा है, न कोई गीतकार उन्हें लिख रहा है और न ही युवाओ को उसकी अनुपस्थिति से पैदा हुए रिक्त स्थान से कोई फर्क पड़ रहा है. एक कमी है जिसे भरने का प्रयास कोई नहीं कर रहा. मुख्यधारा से कोसो दूर कुछ सुधीजन गजलें लिख रहे हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो आज गजल गायक कहलाने की हिम्मत रख रहे हैं लेकिन लगता है जैसे आधुनिकता के अंधाधुंध मैराथन मे  जिसकी परिधि में फिल्में और प्राइवेट एलबम आते हैं - गजल गायकी अस्थिसय्या मे लेट चुकी है और अपनी आपबीती  पढ़े जाने का इंतजार कर रही है.

आज भी पूछने पर गुजरे जमाने के गजल गायक गजलों की शान में अभिवादन  ही भेजते हैं. गजल गायकी को अपनी पसंदीदा शैली मानते रहने वाले हरिहरन यह मानने को तैयार ही नहीं है  कि गजल अब विलुप्त हो  चुकी है और यही कहते हैं कि नये फ्लेवर के साथ वो फिर वापस लौटेगी. पंकज उधास कहते हैं कि जो प्रतिष्ठा खोई है गजल जल्द ही उसे अपनी पुरानी वाली खासियत के चलते वापस पा लेगी. शुभा मुद्गल कहती हैं कि गजल को सुनने के लिए उर्दू शायरी का भी आनंद लेना जरूरी है, लेकिन हमारी शिक्षा उर्दू पर ध्यान ही नहीं देती और इसीलिए लोग गजलों में गहरे नहीं उतरते. लेकिन वास्तविकता यह भी है कि अब पुराने गजल गायक भी कोई नये प्रयास नहीं करते. न सोशल प्लेटफॉर्म  का फायदा उठाकर किसी अनसुनी गजल को संगीतबद्ध करते हैं और न ही नये-महंगे कांसर्ट्स में पुरानी गजलें गाते रहने के अलावा इस जानर में कोई खास प्रयोग ही करते हैं.

अनूप जलोटा भी काफी पहले दर्शकों की मांग पर गजल गायकी से विदा लेकर भजन गायकी की तरफ जा  चुके हैं और वापसी का कोई संभावना नज़र नहीं आ रहा. गालिब को पुन: परिभाषित करने वाले और लेखन की हर विधा पर लगातार किताबें लिखने वाले गुलजार का भी ‘छैंया-छैंया’ और ‘यार जुलाहे’ के बाद कोई नया गजल-संग्रह आया हो, याद नहीं पड़ता. फेसबुक-ट्विटर पर अपना रचनाकर्म साझा करने वाले कई नये गीतकार भी नज्म खूब साझा कर रहे हैं लेकिन गजल से वे भी दूरी बनाकर चल रहे हैं.

नए गीतकारों की गजल तो छोड़ दीजिये कोई भी स्थापित गायक मीर तकी मीर, मोमिन, गालिब, दाग देहलवी, फैज अहमद फैज, नासिर कादरी, इकबाल, फराज, दुष्यंत कुमार, बशीर बद्र या निदा फाजली जैसे गजलगो तक की अनसुनी गजलों को गाने का प्रयास नहीं कर रहा. आखिरी बार हिंदी फिल्मों में अगर किसी ने गजल को खूबसूरती से हिस्सा लिया था तो वो शायद वरुण ग्रोवर थे, जिन्होंने ‘मसान’ के लिए दुष्यंत कुमार की गजल की टेक लेकर ‘तू किसी रेल सी गुजरती है’ लिखा था. लेकिन वो भी एक फिल्मी गीत था, शुद्ध रूप में गजल नहीं.


आज भी ऐसा नहीं है कि गजलें कोई सुनना नहीं चाहता. दीवाने आज भी कभी मल्लिका-ए-गजल बेगम अख्तर की पनाह में जाते हैं, कभी मेहदी हसन को तलाशते हैं तो कभी गुलाम अली की मुरकियों के पुन: मुरीद बन जाते हैं. सरलता की चाह में लोग पंकज उधास को ढूंढते हैं, तलत अजीज और फरीदा खानम संग हो लेते हैं, आबिदा परवीन को आईट्यून्स पर खोजते हैं और हर तरह की गजल से रूबरू होने के लिए जगजीत सिंह को अपना यार बना लेते हैं. नयी पीढ़ी तो वैसे भी हर उस चीज के पीछे भागती है जिसे सोशल मीडिया पर सजा धजा कर प्रस्तुत किया जाता है इसलिए उसे रिझाना मुश्किल नहीं है. एक बार ऐसा ही अभिनव प्रयास पंकज उधास की ‘चुपके-चुपके’ और ‘यूं मेरे खत का जवाब आया’ नाम की गजलों में जान अब्राहम संग कूल म्यूजिक वीडियोज बनाकर किया भी जा चुका है. लेकिन उसके लिए गजल बनानी पड़ेगी, उसे आवाम तक पहुंचाना पड़ेगा और महीने भर में सैकड़ों गाने रिलीज करने वाली हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पास गजल के लिए इतना भर वक्त भी नहीं है.

गजल गायकी के इतिहास की जगह गजल के इतिहास की छोटी-सी झलक यहां लिखने के पीछे की मंशा सिर्फ एक सवाल पूछना है. क्या वह समृद्ध विधा जिसका इतिहास इस कदर गौरवपूर्ण और बेमिसाल है, सिर्फ इसलिए खत्म हो जानी चाहिए कि अब वो बाजार के काम की नहीं रही? या फिर इसलिए क्योंकि कोई कहने-सुनाने वाला नहीं रहा, ‘जिसको मैं ओढ़ता बिछाता हूं, वह गजल आपको सुनाता हूं’?

बिलकुल नहीं.