धान की तरह गोबर की भी खरीदी एक अलग कोशिश...

सारा दारोमदार योजना के ईमानदार क्रियान्वयन पर है. देश में अपनी तरह के इस पहले प्रयोग को सफल बनाना है, तो सरकार को पूरी ताकत लगानी होगी. गोबर के भी दिन फिरने वाले हैं.

धान की तरह गोबर की भी खरीदी एक अलग कोशिश...

नजरिया:-

देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने केंद्र और कई राज्य सरकारें अलग-अलग योजनाएं बना रही हैं. किसानों से 2500 रुपए प्रति क्विंटल समर्थन मूल्य पर धान खरीदने के बाद छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार ने भी एक अलग प्रयोग अगले महीने हरेली त्यौहार से शुरू करने का फैसला किया है. गोबर की खरीदी का. रेट और बाकी प्रक्रिया तय होनी बाकी है. यह देश में अपनी तरह की पहली योजना है. राज्य सरकार ने सत्ता में आने के बाद ग्रामीण इलाकों पर केंद्रित अपने फ्लैगशिप कार्यक्रम नरवा गरवा घुरवा बाड़ी योजना को शुरू किया था. गांव-गांव में गोठान योजना इसका एक हिस्सा है. इसमें मवेशियों को एक जगह रखने का इंतजाम हो रहा है. करीब 2200 गांवों में गौठान शुरू हो चुके हैं. लगभग 2800 और गांवों में यह प्रक्रिया चल रही है. अब गोबर खरीदने की योजना को  गोठान योजना-2.0 मानिये. सरकार ने जिस तरह से घरों से गोबर खरीदने से लेकर वर्मी खाद तैयार करके बेचने तक की तैयारी की है , उसे देखकर  माना जाना चाहिए कि इसके आर्थिक पक्ष और व्यावहारिकता को भी अच्छी तरह से जांचा-परखा जा चुका होगा. छत्तीसगढ़ में सामान्य रूप से पाली जाने वाली देसी गायें दूध भले ही कम देती हैं पर गोबर अच्छा खासा मिलता है. इनकी देखभाल भी ज्यादा कठिन या खर्चीली नहीं होती. योजना सफल हुई, तो गांव के हर अमीर, गरीब परिवार खासकर भूमिहीन मजदूरों के लिए आय का एक स्थायी स्रोत तैयार हो जाएगा. खुले में घूमने वाली ज्यादातर गायों के मालिक भूमिहीन मजदूर ही हैं. सही रेट तय हो गया, तो तीन से चार गायों के गोबर से ही वह हर महीने एक से तीन हजार रुपए कमा लेगा. यह रकम सरकारी पेंशन से कई गुना ज्यादा है. गोठान योजना में वर्मी खाद तैयार करने का काम पिछले करीब सवा साल से चल रहा है. इसमें सबसे बड़ी समस्या गोबर की अनुपलब्धता बन गई है. यह कमी गोबर खरीदी योजना से पूरी हो सकेगी. राज्य के गोवंश और भैंस के गोबर से सालाना 1500 करोड़ टन खाद बनाई जा सकती है, जो राज्य में इस्तेमाल की जा रही रासायनिक खाद से दोगुना ज्यादा है.  वर्मी खाद के खरीदार के रूप में किसानों के रूप में लाखों ग्राहक पहले से ही तैयार हैं. यह रासायनिक खाद से निश्चित रूप से सस्ती होगी और खेत की मिट्टी को भी उपजाऊ बनाए रखेगी. किसानों के सामने आज बड़ी चुनौती रासायनिक खाद से खराब हो रही खेत की मिट्टी भी है. जैविक खेती को बढ़ावा देने की कोशिश को भी रफ्तार मिलेगी. आज सारी अर्थव्यवस्था में पैसे का फ्लो गांव से शहर की ओर है. यानी गांव का पैसा शहर की ओर जा रहा है. अनाज, सब्जी और मनरेगा के जरिये ही ग्रामीणों के पास पैसा आ रहा है. ऐसे में गोबर आय का एक और जरिया बन सकता है. अगर सरकार गोबर और वर्मी खाद की खरीदी को संभाल लेती है, तो योजना गेम चेंजर साबित होगी. अब सारा दारोमदार योजना के ईमानदार क्रियान्वयन पर है. देश में इस तरह के पहले प्रयोग को सफल बनाना है, तो सरकार को पूरी ताकत लगानी होगी. गोबर खाद के अलावा छत्तीसगढ़ की  महिला स्व सहायता समूहों ने गाय के गोबर से दीयों से लेकर श्मशान घाट में अंतिम क्रिया के वक्त काम आने वाले गोबर के टुकड़ों तक कई ऐसे उत्पाद बनाए हैं, जो चर्चा में हैं. ग्रामीण उद्यमियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती बाजार तक पहुंच है. अगर सरकार मदद करे, तो एक रोजगार का बड़ा रास्ता खुलेगा. राजनीति भी गांवों से जुड़ी है. जीडीपी में खेती का योगदान भले ही सर्विस सेक्टर से कम हो, लेकिन वोट की राजनीति में गांवों की हिस्सेदारी आज भी 50 से 62% है. यही वजह है कि शहरी वोटरों में पैठ रखने वाली भाजपा का पूरा जोर ग्रामीण इलाकों से जुड़ी योजनाओं पर है. कोरोना राहत पैकेज में भी एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत के लिए है. ग्रामीण वोट बैंक की ताकत और चिंताओं से भूपेश बघेल सरकार भी अनजान नहीं है. कांग्रेस की 15 सालों बाद सत्ता में शानदार वापसी के पीछे भी बड़ी ताकत किसान ही थे. धान को ज्यादा समर्थन मूल्य देने समेत बघेल सरकार के कई और फैसलों का फायदा भी दिखा है. पिछले साल मंदी के बावजूद छत्तीसगढ़ के ग्रामीण बाजार ने राज्य की अर्थव्यवस्था को बड़ा सहारा दिया. आज कोरोना महामारी के वक्त भी गांव अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का इंजन बन सकते हैं.

(ये आर्टिकल राजेश जोशी के फेस बुक से ली गई है, जो रायपुर नवभारत में संपादक हैं।)