बिरसा मुंडा की जयंती पर भारत का कोई राष्ट्रपति पहली बार उनके गांव पहुंचा है। कौन थे बिरसा मुंडा जानिए पूरी खबर...

बिरसा मुंडा की जयंती पर भारत का कोई राष्ट्रपति पहली बार उनके गांव पहुंचा है। कौन थे बिरसा मुंडा जानिए पूरी खबर...

रांची(झारखंड)।केंद्र सरकार बिरसा मुंडा की जयंती को पूरे देश में जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मना रही है।भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू इसी मौके पर रांची से सत्तर किलोमीटर दूर बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू पहुंची हुई हैं जहां आज तक भारत का कोई भी राष्ट्रपति नहीं पहुंचा था। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने यहां पहुंचकर बिरसा मुंडा की प्रतिमा पर माल्यार्पण करके श्रद्धांजलि अर्पित की।बता दें कि राष्ट्रपति स्वयं आदिवासी समुदाय से आती हैं।

15 नवंबर, 1875 को जन्म लेने वाले बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के ऐसे नायक रहे, जिनको जनजातीय लोग आज भी गर्व से याद करते हैं। आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने तब के ब्रिटिश शासन से भी लोहा लिया था। उनके योगदान के चलते ही उनकी तस्वीर भारतीय संसद के संग्रहालय में लगी हुई है। ये सम्मान जनजातीय समुदाय में केवल बिरसा मुंडा को ही अब तक मिल सका है।उनके जन्म के साल और तिथि को लेकर अलग-अलग जानकारी उपलब्ध है, लेकिन कई जगहों पर उनकी जन्म तिथि 15 नवंबर, 1875 का उल्लेख है और उसी के आधार पर आज उनकी जयंती मनाई जाती है।

ब्रिटिश शासन के समय शोषण और दमन की नीतियों से आदिवासी समुदाय बुरी तरह जूझ रहा था। इनकी जमीनें छीनीं जा रही थीं और आवाज उठाने पर बुरा सुलूक किया जा रहा था।अंग्रेजों का अत्‍याचारों के खिलाफ और लगान माफी के लिए इन्‍होंने 1 अक्‍टूबर 1894 को समुदाय के साथ मिलकर आंदोलन किया। 1895 में इन्‍हें गिरफ्तार किया गया और हजारीबाग केंद्रीय कारागार में दो साल करावास की सजा दी गई।अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा मुंडा की लड़ाई यूं तो बहुत कम उम्र में ही शुरू हो गई थी, लेकिन एक लम्‍बा संघर्ष 1897 से 1900 के बीच चला। इस बीच मुंडा जात‍ि के लोगों और अंग्रेजों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा और उनके समर्थकों ने तीर कमान से ही अंग्रेजों से युद्ध लड़ा और जीता भी। बाद में अपनी हार से गुस्‍साए अंग्रेजों ने कई आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार भी किया।

जनवरी 1900 में डोम्बरी पहाड़ पर एक जनसभा को सम्‍बोधित कर रहे बिरसा मुंडा पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया। इस हमले में कई औरतें व बच्चे मारे गए। शिष्यों की गिरफ्तारियों के बाद 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों ने इन्‍हें भी बंदी बना लिया। अंतिम सांस तब ली जब 9 जून 1900 को बिरसा मुंडा रांची कारागार में अंग्रेजों ने इन्‍हें जहर देकर मार दिया।रांची के डिस्‍ट‍िलरी पुल के पास बिरसा मुंडा की समाध‍ि बनी है। छत्‍तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा,‍ बिहार और पश्‍चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में इन्‍हें भगवान की तरह पूजा जाता है। रांची का केंद्रीय कारागार और एयरपोर्ट भी इनके नाम पर ही है।

1894 में बिरसा मुंडा ने एक ऐसे धर्म की शुरुआत की जो पूरी तरह से प्रकृति को समर्पित था। बिरसाइत धर्म में गुरुवार के दिन फूल, पत्तियां और दातून को तोड़ने पर भी मनाही थी। इस दिन हल चलाने की भी पाबंदी थी। इस धर्म को मानने वालों का एक ही लक्ष्‍य था, प्रकृति की पूजा। इस धर्म के प्रसार के लिए बिरसा मुंडा ने 12 शिष्‍यों को नियुक्‍त किया। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस धर्म को मानने वालेे लोग मांस, मदिरा, तम्‍बाकू और बीड़ी का सेवन भी नहीं कर सकते।