आरक्षण को लेकर छत्तीसगढ़ की राज्यपाल ने स्पष्ट कर दिया है कि वे ‘रबड़ स्टांप राज्यपाल नहीं हैं, जिसका काम सिर्फ हस्ताक्षर करना है’

आरक्षण को लेकर छत्तीसगढ़ की राज्यपाल ने स्पष्ट कर दिया है कि वे ‘रबड़ स्टांप राज्यपाल नहीं हैं, जिसका काम सिर्फ हस्ताक्षर करना है’

रायपुर(छत्तीसगढ़)।देश में छत्तीसगढ़ पहला राज्य नहीं है,जब राज्य सरकार और राजभवन के बीच किसी विधेयक को लेकर टकराव की स्थिति बनी हो।पंउडुचेरी, पश्चिम बंगाल, केरल और राजस्थान जैसे कई राज्य हैं जहां वहां के राज्यपालों ने समय-समय पर प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों का उपयोग कर राज्य सरकारों के कई विधेयकों पर हस्ताक्षर करने से मना किया है।राज्यपाल के पद को राजनीतिक क्षेत्र के विशेषज्ञ अक्सर रबर स्टैम्प कहते हैं।पर अब यह अवधारणा पीछे हो गई है।छत्तीसगढ़ की राज्यपाल ने 12 दिनों बाद भी आरक्षण संशोधन विधेयकों पर हस्ताक्षर नहीं कर अपना रुख स्पष्ट कर दिया है कि वह ‘रबड़ स्टांप राज्यपाल नहीं हैं, जिसका काम सिर्फ हस्ताक्षर करना है।’ बल्कि उन्होंने आरक्षण विधेयक को लेकर राज्य  सरकार से कई सवालों की एक सूची भेजी दी है और
राजभवन के इस कदम से अब लग रहा है,छत्तीसगढ़ में आरक्षण का मामला लंबे समय के लिए उलझ कर रह गया है।

बता दें कि देश में छत्तीसगढ़ पहला राज्य नहीं है,जहां इस तरह की स्थिति निर्मित होते दिख रही है। हाल ही के महीनों में केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान और एलडीएफ़ की पिनाराई विजयन सरकार के बीच 'यूनिवर्सिटी लॉज़ संशोधन अधिनियम, 2022' को लेकर मतभेद देखने को मिले थे। जिसमें राज्यपाल के दस्तख़त होते ही केरल के 13 विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर चुनने की प्रक्रिया में केरल सरकार को नए अधिकार मिल जाते। लेकिन राजभवन ने इस बिल को अपनी मंज़ूरी नहीं दी।पुडुचेरी की तत्कालीन उपराज्यपाल किरण बेदी ने तो तब के मुख्यमंत्री वी नारायणसामी को कह दिया था कि मुख्यमंत्री को यह नहीं सोचना चाहिए कि वह कोई ‘रबड़ स्टांप राज्यपाल हैं, जिसका काम सिर्फ हस्ताक्षर करना है’। पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल कलराज मिश्र ने तो देश के इतिहास में पहली बार  विधान सभा में राज्यपाल के बजट अभिभाषण में संविधान की प्रस्तावना और मौलिक कर्तव्यों को पढ़कर एक नई परंपरा की शुरूआत तक कर दी थी और कई मामलों में ममता सरकार से उनके मदभेद जगजाहिर थे।

छत्तीसगढ़ में आरक्षण को लेकर अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई है। यह देश का अकेला ऐसा राज्य बन गया है, जहां पिछले तीन महीने से लोक सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का नियम और रोस्टर ही लागू नहीं है। इस स्थिति से निपटने राज्य सरकार ने 2 दिसंबर को विशेष सत्र बुला कर संशोधित आरक्षण विधेयक पास कर राज्यपाल के पास भेजा। परंतु राज्यपाल के इस विधेयक पर आज परियंत तक हस्ताक्षर न होने से स्थिति जस की तस बनी हुई है। वहीं राजभवन द्वारा इस विधेयक को लेकर राज्य सरकार से कई सवाल पूछे गए हैं। राजभवन ने अनुसूचित जाति और जनजाति को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा मानने का आधार तो पूछा ही है, साथ में इसके जरिये कुछ कानूनी सवाल भी उठाये हैं।

स्थानीय समाचार पत्र दैनिक भास्कर के अनुसार राजभवन ने पूछा है कि क्या इस विधेयक को पारित करने से पहले अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का कोई डाटा जुटाया गया था? अगर जुटाया गया था तो उसका विवरण। 1992 में आये इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय ने आरक्षित वर्गों के लिए आरक्षण 50% से अधिक करने के लिए विशेष एवं बाध्यकारी परिस्थितियों की शर्त लगाई थी। उस विशेष और बाध्यकारी परिस्थितियों से संबंधित विवरण क्या है।

उच्च न्यायालय में चल रहे मामले में सरकार ने आठ सारणी दी थी। उनको देखने के बाद न्यायालय का कहना था, ऐसा कोई विशेष प्रकरण निर्मित नहीं किया गया है जिससे आरक्षण की सीमा को 50% से अधिक किया जाए। ऐसे में अब राज्य के सामने ऐसी क्या परिस्थिति पैदा हो गई जिससे आरक्षण की सीमा 50% से अधिक की जा रही है। राजभवन ने यह भी पूछा है कि सरकार यह भी बताये कि प्रदेश के अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग किस प्रकार से समाज के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ों की श्रेणी में आते हैं।

राजभवन ने जानना चाहा है कि आरक्षण पर चर्चा के दौरान मंत्रिमंडल के सामने तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में 50% से अधिक आरक्षण का उदाहरण रखा गया था। उन तीनों राज्यों ने तो आरक्षण बढ़ाने से पहले आयोग का गठन कर उसका परीक्षण कराया था। छत्तीसगढ़ ने भी ऐसी किसी कमेटी अथवा आयोग का गठन किया हो तो उसकी रिपोर्ट पेश करे। राजभवन ने क्वांटिफायबल डाटा आयोग की रिपोर्ट भी मांगी है।

वहीं विधेयक के लिए विधि विभाग का सरकार को मिली सलाह की जानकारी मांगी गई है। राजभवन में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के लिए बने कानून में सामान्य वर्ग के गरीबों के आरक्षण की व्यवस्था पर भी सवाल उठाए हैं। तर्क है कि उसके लिए अलग विधेयक पारित किया जाना चाहिए था। राजभवन ने यह भी जानना चाहा है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के व्यक्ति सरकारी सेवाओं में चयनित क्यों नहीं हो पा रहे हैं।

राजभवन ने सरकार से जो जानना चाहा है उसमें बड़ा सवाल प्रशासन की दक्षता का भी है। सरकार ने आरक्षण का आधार अनुसूचित जाति और जनजाति के दावों को बताया है। वहीं संविधान का अनुच्छेद 335 कहता है कि सरकारी सेवाओं में नियुक्तियां करते समय अनुसूचित जाति और जनजाति समाज के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाये रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा। अब राजभवन ने पूछा है कि सरकार यह बताये कि इतना आरक्षण लागू करने से प्रशासन की दक्षता पर क्या असर पड़ेगा इसका कहीं कोई सर्वे कराया गया है?

क्या है राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति:

राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता हैं और वह मंत्री परिषद की सलाह पर काम करता हैं। लेकिन संविधान राज्यपाल को प्रभाव और शक्तियां दोनों देता है।अनुच्छेद 166(2) के अनुसार यदि कोई प्रश्न उठता है कि राज्यपाल की शक्ति विवेकाधीन है या नहीं तो उसी का निर्णय अंतिम माना जाता है। अनुच्छेद 166(3) के अनुसार राज्यपाल इन शक्तियों का प्रयोग उन नियमों के निर्माण के लिए कर सकता हैं जिनसे राज्यकार्यों का सुगमता पूर्वक संचालन हो सके। साथ ही वह मंत्रियों के कार्य विभाजन भी कर सकता है।अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग कर राज्य विधायिका द्वारा पारित बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।अनुच्छेद 356 के अधीन राज्यपाल राष्ट्रपति को राज्य के प्रशासन को अधिग्रहित करने के लिए निमंत्रण दे सकता है यदि यह संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकता है। दरअसल, राज्यपाल की विशेष विवेकाधीन शक्ति काफी अहम है जिसके अंतर्गत राज्यपाल मंत्रिपरिषद से सलाह तो ले सकता है लेकिन इसे मानने के लिए वह बाध्य नहीं है और ना ही उसे सलाह लेने की जरूरत।