क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्ड्स, जिन्हें लेकर इतनी बहस चल रही है...।

क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्ड्स, जिन्हें लेकर इतनी बहस चल रही है...।

नई दिल्ली डेस्क।दरअसल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से भी ज़्यादा वक़्त से लंबित था और इस पर सभी की निगाहें इसलिए भी टिकी हुई थीं क्योंकि इस मामले का नतीजा साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर बड़ा असर डाल सकता है।यह भी की सुनवाई शुरू होने से पहले भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने इस स्कीम का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि ये स्कीम राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में "साफ़ धन" के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है।परंतु आज सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड की वैधता पर अपना फ़ैसला सुनाते हुए इस पर रोक लगा दी है। सर्वोच्च अदालत ने इसे असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया।

असल में इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ख़रीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीक़े से दान कर सकता है। भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था।

ये बॉन्ड एक हज़ार रुपए से लेकर एक करोड़ रुपए तक की तय रक़म की शक्ल में जारी किए जा सकते हैं।इन्हें साल में एक बार तय समय-सीमा के भीतर कुछ ख़ास सरकारी बैंकों से ख़रीदा जा सकता है। भारत के आम नागरिकों और कंपनियों को ये इजाज़त है कि वो ये बॉन्ड ख़रीदकर सियासी पार्टियों को चंदे के रूप में दे सकते हैं। दान मिलने के 15 दिन के अंदर राजनीतिक दलों को इन्हें भुनाना होता है। इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए केवल वही सियासी दल चंदा हासिल करने के हक़दार हैं जो रजिस्टर्ड हैं और जिन्होंने पिछले संसदीय या विधानसभाओं के चुनाव में कम से कम एक फ़ीसद वोट हासिल किया हो।

सरकार के मुताबिक़, जारी होने के बाद से अब तक, 19 किस्तों में 1.15 अरब डॉलर क़ीमत के इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे जा चुके हैं। ऐसा लगता है कि इसका सबसे अधिक फ़ायदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को हुआ है। 2019 से 2021 के दौरान, बीजेपी को कुल जारी हुए बॉन्ड के दो तिहाई हिस्से दान में मिले। इसकी तुलना में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को महज़ 9 प्रतिशत बॉन्ड ही मिले।भारत में इलेक्टोरल बॉन्ड इसलिए लाए गए थे ताकि सियासी चंदे में काले धन के लेन-देन का ख़ात्मा करके, राजनीतिक दलों के रक़म जुटाने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सके।इस संबंध में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बीरेश शुक्ल का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड का असर इसके उलट हुआ है। बॉण्ड के ज़रिए चंदे पर रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है।पहली बात तो ये है कि इस बात का कोई सार्वजनिक रिकॉर्ड नहीं है कि प्रत्येक बॉण्ड को किसने ख़रीदा और उसे किसे दान दिया गया।

इस संबंध में रायपुर लोकसभा के संभावित कांग्रेस प्रत्याशी शंकर लाल साहू कहते हैं इलेक्टोरल बॉण्ड पूरी तरह से अनाम भी नहीं होते क्योंकि सरकारी बैंकों के पास इस बात का पूरा रिकॉर्ड होता है कि बॉन्ड किसने ख़रीदा और किस पार्टी को दान में दिया। ऐसे में सत्ताधारी पार्टी बड़ी आसानी से ये जानकारी जुटा सकती है और फिर इसका 'इस्तेमाल' दान देने वालों को प्रभावित कर सकता है।